अध्याय 7 श्लोक 18
उदाराः, सर्वे, एव, एते, ज्ञानी, तु, आत्मा, एव, मे, मतम्,
आस्थितः, सः, हि, युक्तात्मा, माम्, एव, अनुत्तमाम्, गतिम् ।।18।।
अनुवाद: (हि) क्योंकि (मे) मेरे (मतम्) विचार में (एते) ये (सर्वे,एव) सभी ही (ज्ञानी) ज्ञानी (आत्मा) आत्मा (उदाराः) उदार हैं (तु) परंतु (सः) वह (माम्) मुझमें (एव) ही (युक्तात्मा) लीन आत्मा (अनुत्तमाम्) मेरी अति घटिया (गतिम्) मुक्तिमें (एव) ही (आस्थितः) आश्रित हैं। (18)
केवल हिन्दी अनुवाद: क्योंकि मेरे विचार में ये सभी ही ज्ञानी आत्मा उदार हैं परंतु वह मुझमें ही लीन आत्मा मेरी अति घटिया मुक्तिमें ही आश्रित हैं। (18)
गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 का भावार्थ है कि मेरी अर्थात् ब्रह्म की भक्ति भी चार प्रकार के भक्त करते हैं 1. आत्र्त: जो संकट निवार्ण के लिए वेद मंत्रों से ही अनुष्ठान करते हैं 2. अर्थार्थी: जो धन लाभ के लिए वेद मंत्रों से ही अनुष्ठान आदि करता है 3. जिज्ञासु: जो ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से वेदों का पठन-पाठन करके ज्ञान संग्रह कर लेता है फिर वक्ता बनकर जीवन व्यर्थ कर जाता है 4. ज्ञानी: जिस साधक ने वेदों को पढ़ा तथा जाना कि मनुष्य जीवन केवल प्रभु प्राप्ति के लिए ही मिला है तथा एक पूर्ण परमात्मा की भक्ति से ही पूर्ण होगा। तत्वदर्शी संत जो गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में वर्णित है न मिलने से ब्रह्म को ही पूर्ण परमात्मा मान कर काल (ब्रह्म) साधना करते रहे जो अति अनुत्तम कही है अर्थात् ब्रह्म साधना भी अश्रेष्ठ है।
प्रश्न:- आपने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 के अनुवाद में अर्थ का अनर्थ किया है ‘‘अनुत्तमाम्’’ का अर्थ अश्रेष्ठ किया है। जब कि समास में अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम होता है जिस से उत्तम कोई और न हो उस के विषय में समास में अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम होता है। अन्य गीता अनुवाद कत्र्ताओं ने सही अर्थ किया है अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम किया है।
उत्तर:- मैं आप की इस बात को सत्य मानकर आप से प्रार्थना करता हूँ कि ‘‘गीता ज्ञान दाता अपनी साधना के विषय में गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 में बता रहे हैं। यदि गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना व गति को अनुत्तम कह रहे हैं। जिस का भावार्थ आप के समास के अनुसार यह हुआ कि गीता ज्ञान दाता की गति से उत्तम अन्य कोई गति नहीं अर्थात् मोक्ष लाभ नहीं।
गीता ज्ञान दाता स्वयं गीता अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 4 में किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कह रहे हैं। उसी की कृपा से परम शान्ति व शाश्वत स्थान सदा रहने वाला मोक्ष स्थल अर्थात् सत्यलोक प्राप्त होगा। अपने विषय में भी कहा है कि मैं भी उसी की शरण हूँ। उसी पूर्ण परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए तथा कहा है कि उस परमेश्वर के परमपद (सत्यलोक) को प्राप्त करना चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर इस संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका जन्म मृत्यु सदा के लिए समाप्त हो जाता है।
गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा के विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61- 62, 64, 66 अध्याय 15 श्लोक 4,16-17, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17, 22 से 24, 27-28, 30-31, 34 अध्याय 5 श्लोक 6-10,13 से 21 तथा 24-25-26 अध्याय 6 श्लोक 7, 19, 20, 25, 26-27 अध्याय 4 श्लोक 31-32, अध्याय 8 श्लोक 3, 8 से 10, 17 से 22, अध्याय 7 श्लोक 19 से 29, अध्याय 14 श्लोक 19 आदि.2 श्लोकों में कहा है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ अर्थात् उत्तम परमात्मा तो अन्य है जैसे गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि उत्तम पुरूषः तु अन्यः जिसका अर्थ है उत्तम परमात्मा तो अन्य ही है। इसलिए उस उत्तम पुरूष अर्थात् सर्वश्रेष्ठ परमात्मा की गति अर्थात् उस से मिलने वाला मोक्ष भी अति उत्तम हुआ। इस से यह भी सिद्ध हुआ कि उस परमेश्वर अर्थात् पूर्ण परमात्मा की गति गीता ज्ञान दाता वाली गति से उत्तम हुई। इसलिए गीता ज्ञान दाता वाली गति सर्व श्रेष्ठ नहीं है। अर्थात् जिस से श्रेष्ठ कोई न हो। यह विशेषण भी गलत सिद्ध हुआ। क्योंकि जब गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ कोई और परमेश्वर है तो उस की गति भी गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम का अर्थ अश्रेष्ठ ही न्याय संगत है अर्थात् उचित है। आप तथा अन्य गीता अनुवाद कत्र्ताओं ने अर्थ का अनर्थ किया है। जो अनुत्तम का अर्थ अति उत्तम कहा तथा किया है।