अध्याय 15 श्लोक 11

यतन्तः, योगिनः, च, एनम्, पश्यन्ति, आत्मनि, अवस्थितम्,
यतन्तः, अपि, अकृतात्मानः, न, एनम्, पश्यन्ति, अचेतसः।।11।।

अनुवाद: (यतन्तः) यत्न करनेवाले (योगिनः) योगीजन (आत्मनि) अपने हृदय में (अवस्थितम्) स्थित (एनम्) इस परमात्माको जो आत्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जैसे सूर्य का ताप अपना निर्गुण प्रभाव निरन्तर बनाए रहता है को (पश्यन्ति) देखता है (च) और (अकृतात्मानः) जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध नहीं किया अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कम्र न करने वाले (अचेतसः) अज्ञानीजन तो (यतन्तः) यत्न करते रहनेपर (अपि) भी (एनम्) इसको (न, पश्यन्ति) नहीं देखते। (11)

हिन्दी: यत्न करनेवाले योगीजन अपने हृदय में स्थित इस परमात्माको जो आत्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जैसे सूर्य का ताप अपना निर्गुण प्रभाव निरन्तर बनाए रहता है को देखता है और जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध नहीं किया अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कम्र न करने वाले अज्ञानीजन तो यत्न करते रहनेपर भी इसको नहीं देखते।

विशेष:- श्लोक 12 से 15 तक पवित्र गीता बोलने वाला ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष अपनी स्थिति बता रहा है कि मेरे अन्तर्गत अर्थात् इक्कीस ब्रह्मण्डों में सर्व प्राणियों का आधार हूँ। इन ब्रह्मण्डों में जितने भी प्रकाश स्त्रोत हैं उन्हें मेरे ही जान। मैं ही वेदों को बोलने वाला ब्रह्म हूँ। वेदों व वेदान्त का कत्र्ता मैं ही हूँ। चारों वेदों को मैं ही जानता हूँ तथा चारों वेदों में मेरी ही भक्ति विधि का वर्णन है। विचार करें - जैसे उलटा लटका हुआ संसार रूपी वृृक्ष है। इसकी मूल तो आदि पुरुष परमेश्वर अर्थात् पूणब्रह्म है तथा तना अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म है, डार क्षर पुरुष अर्थात् यह गीता व वेदों को बोलने वाला ब्रह्म (काल) है। तीनों गुण रूप (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) शाखाऐं हैं तथा पत्ते रूप अन्य प्राणी हैं, पेड़ को आहार मूल (जड़) से प्राप्त होता है। फिर वह आहार तना में जाता है, तना से डार मं鉈 तथा डार से उन शाखाओं में जाता है जो उस डार पर आधारित हैं। ऐसे ही शाखाओं से पत्तों तक आहार जाता है, परन्तु वास्तव में सर्व का पालन कत्र्ता तथा वास्तव में अविनाशी परमेश्वर परमात्मा भी इन दोनों (क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष) से अन्य परम अक्षर ब्रह्म है जो गीता अध्याय 8 श्लोक 1 तथा 3 में वर्णन है तथा विशेष वर्णन इन निम्न श्लोक 16,17 में व इसी अध्याय 15 के ही 1 से 4 तक में है। इसी अध्याय 15 के श्लोक 15 में कहा है कि मैं प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। यह काल महाशिव रूप में हृदय कमल में दिखाई देता है। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कहा है वह पूर्ण परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में विशेष रूप से स्थित है तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में भी यही प्रमाण है। इस प्रकार इस मानव शरीर वह ब्रह्म तथा पूर्ण परमात्मा व ब्रह्मा विष्णु महेश का भी इसी शरीर में दर्शन होता है। परन्तु सर्व परमात्मा दूरस्थ होकर शरीर में अलग-2 स्थानों पर दिखाई देते है।